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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

अध्याय 1 आमुख

कहते हैं, न्याय अन्धा होता है और उसे दिन या रात का ज्ञान नहीं होता। किन्तु 22 जुलाई, 1908 की रात बम्बई उच्च न्यायालय के विशाल भवन के अन्दर का दृश्य न्याय के लिए अपशकुन सूचक दिखाई देता था। भारत में न्यायालयों का काम साधारणतः रात में नहीं होता। इसलिए, उस दिन अपराह्न में ही न्यायाधीश ने महाधिवक्ता से कहा कि चाहे कितनी ही देर क्यों न लग जाए, आज मैं मुकदमे की सुनवाई समाप्त करूंगा; सभी को अनुमान हो गया कि उनका निर्णय क्या होगा। इस मुकदमे में अभियुक्त पर राजद्रोह के तीन अभियोग लगाए गए थे।

जब न्यायाधीश ने सूरी को मामला समझा दिया, तो एक अवसादपूर्ण वातावरण छा गया और कड़े दण्ड की आशंका होने लगी। बावजूद इसके कि प्रयानुसार सन्देह का लाभ-यदि कोई हो-अभियुक्त को मिलता, यह निर्विवाद रूप से अभियुक्त के विरुद्ध कुटिल प्रहार था। सूरी, जिनमें सात यूरोपीय और दो भारतीय थे, अस्सी मिनटों तक विचार करने के बाद रात 9.2० वजे लौटे। निस्तब्ध वातावरण में सूरी-प्रमुख ने घोषणा की कि सूरी ने दो के मुकाबले सात के बहुमत से अभियुक्त को अपराधी माना है। न्यायाधीश ने तुरन्त ही इस निर्णय पर अपनी सहमति प्रकट की और अभियुक्त से कहा-इससे पहले कि दण्ड की घोषणा की जाए, यदि वह कुछ कहना चाहते हों, तो कह सकते हैं।

एक महीने से चल रहे मुकदमे की कठिन-परीक्षा के बाद भी गम्भीर और अविचलित दिखाई दे रहे अभियुक्त ने कठघरे में खड़ा होकर बिना एक क्षण भी द्विविधा में पड़े दृढ़ स्वर में कहा-''मुझे केवल यह कहना है कि सूरी के इस निर्णय के बावजूद मैं यही समझता हूं कि मैं निरपराध हूं। मनुष्य से ऊपर भी एक शक्ति है, जिसके इशारे पर मनुष्य और यह संसार चलता है। लगता है, विधाता की यही इच्छा है कि जिस कार्य को मैं करना चाहता हूं, वह मेरे स्वतन्त्र रहने की अपेक्षा मेरी पीड़ा से ही पूर्ण हो।''

इन शब्दों में जो गौरव और औदात्य है, उससे स्वतन्त्रता के लिए बलिदान और ब्रिटिश राज के प्रति ललकार की भावनाएं स्पष्ट होती हैं। ये शब्द भारत के तत्कालीन इतिहास में केवल एक व्यक्ति ही कह सकता था और वह था बाल गंगाधर तिलक।

जब यह विचार आता है कि श्री लोकमान्य तिलक बम्बई के उच्च न्यायालय का नहीं, इतिहास का निर्णय जानने के लिए कठघरे में खड़े, थे तब आत्मोत्सर्ग, गरिमा और विद्रोह की साक्षात् मूर्ति नेत्रों के सम्मुख आ जाती है। ऐसा मालूम होता है कि उनकी सारी जीवनधारा इसी ऐतिहासिक क्षण पर केन्द्रित थी। इसके बाद बीते सारे वर्षों ने स्वराज के उस लक्ष्य की केवल पुष्टि ही की, जिसके लिए तिलक ने आजीवन संघर्ष किया था।

श्री तिलक को छः वर्ष के काला पानी का दण्ड मिला। न्यायाधीश के अनुसार, इसी अभियोग पर पहले प्राप्त दण्ड को दृष्टि में रखते हुए यह सजा हल्की ही थी। परन्तु देशवासियों की दृष्टि में यह कड़ा दण्ड उन्हें केवल इसलिए दिया गया था कि वह ''अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से अधिक देश से प्रेम करते थे।''

इतिहास के इस अनिवार्य निर्णय की पुष्टि इस घटना के मठ वर्ष बाद उसी न्यायालय के कमरे में एक ताम्रपट का, जिस पर तिलक के अविस्मरणीय शब्द खुदे हुए हैं, अनावरण करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री मो० क० चागला ने की, जबकि उन्होंने तिलक-शताब्दी समारोह के अवसर पर लोकमान्य को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा-

''बारह वर्षों में दो बार इसी कमरे में श्री तिलक अभियुक्त बन कर आए और दोनों बार उन्हें कारावास का दण्ड मिला। उनका अपराध था कि उन्हें अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से अधिक देश से प्रेम था। हमारे विषय में हमारे साथ के लोग या आज का संसार क्या निर्णय देता है, इसका अधिक मूल्य नहीं। हमें इतिहास द्वारा दिए गए अन्तिम निर्णय को देखना है। और इतिहास ने श्री तिलक के विषय में निर्णय दिया है कि श्री तिलक को ये दण्ड देश-भक्ति और स्वतन्त्रता की आवाज बुलन्द करने के लिए दिए गए थे। श्री तिलक ने जो कुछ किया, वह आज देश के लिए संघर्ष करने के हर व्यक्ति के अधिकार के रूप में मान लिया गया है। उन दो सजाओं को लोग भूल गार हैं, जिस प्रकार इतिहास हर नीच कार्य को भुला देता है।''

सम्भव है, न्यायालय के उन निर्णयों को लोग भूल गए हों, किन्तु उनकी पृष्ठभूमि में श्री तिलक का जो ओजस्वी स्वरूप निखरा, वह देश के हृदय पर उसी प्रकार अंकित है। वह स्वरूप स्वराज, जिसे वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे, से सम्बद्ध है। आगे आनेवाली पीढ़ियां, जो इस स्वराज से लाभ उठाएंगी, सदा श्री तिलक के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता प्रकट करती रहेंगी।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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